बांग्लादेशी प्रधानमंत्री कार्यालय में लूट

डॉ श्याम कुमार झाविभागाध्यक्ष, संस्कृत विभाग, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार | कल बांग्लादेश के प्रधानमंत्री कार्यालय एवं आवास में आम नागरिकों के प्रवेश और आवास के सरकारी साजो सामान को अपने-अपने कंधों पर उठाए हुए घर ले जाने के दृश्य को हम सबों ने देखा है. यह दृश्य केवल एक राष्ट्र के प्रथम नागरिक के साजो समान की लूट भर नहीं है. इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र में जहां. जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन होता है, उसे संचालित करते हुए कई बार सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति जनता से कितने दूर चले जाते हैं. यह घटना इस बात का भी प्रमाण है कि चाहे GDP ग्रोथ के मामले में बांग्लादेश ने विगत 10 वर्षों में यूरोप के कुछ देशों से भी अधिक प्रगति क्यों न की हो, खेलों के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपने आप को स्थापित क्यों न किया हो, वास्तविक शिक्षा और लोगों में नीति, आचार, सद्व्यवहार की भावनाओं का विकास करने में कहीं न कहीं पीछे छूट गया. बांग्ला भाषी बांग्लादेश का जब निर्माण हुआ तब वहां की जनसंख्या अनुपात और वर्तमान में जनसंख्या के अनुपात में काफी परिवर्तन देखने को मिला है. कहीं न कहीं इसके पीछे सत्ता पक्ष या राजनीतिक नेतृत्व की भी बड़ी भूमिका है. जब हम अपने देश के नागरिकों को ही एक दूसरे से पृथक् कर देखेंगे, एक दूसरे के प्रति हिंसक प्रवृत्तियों को प्रत्यक्षतः है या अप्रत्यक्षतः शासन से सम्वर्धन प्राप्त होगा, तो कभी समय आने पर वही लोग जिन्हें सत्ता पक्ष अपना समझता था, का यह क्रूर और बर्बर व्यवहार भी सामने आ सकता है. विगत दिनों हुए आरक्षण के खिलाफ जनता के संघर्षों में 300 से अधिक छात्रों एवं युवकों की मृत्यु हुई है और कहीं न कहीं यह आक्रोश और सरकारी संपत्ति की लूटपाट इसी हिंसक संघर्ष का प्रतिफल है. ‘ सब दिन होत न एक समान ‘ की तरह बांग्लादेश के प्रधानमंत्री को किसी तरह अपनी जान बचाकर भारत में आकर शरण लेनी पड़ी.

यह इस बात का प्रमाण है कि विगत वर्षों में बांग्लादेश ने विकास के कई मायने में कीर्तिमान तो स्थापित किया, लेकिन सम्पूर्ण विकास जिसमें व्यक्तित्व निर्माण, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना, पर दुःख कातरता, मनुष्य और मनुष्य में अविभेद जैसी भावनाएँ मूल में है, का संचार करने में सत्ता पक्ष और शिक्षण संस्थाएं असफल सिद्ध हुई है. इस घटना से पूरे विश्व में शासन के शीर्ष पर बैठे राष्ट्राध्यक्षों तथा राजनेताओं को शिक्षा लेने की आवश्यकता है कि हम यदि अपने निहित स्वार्थ के कारण जनता की भावनाओं के साथ खेलेंगे, अपनी जिद पर अडिग रहेंगे, शासन जनता के लिए है इस मूल भावना को भूलेंगे, सर्वजनीन वास्तविक और मौलिक शिक्षा पर ध्यान नही देंगे, तो एक दिन विपरीत परिस्थिति आने पर इस तरह के दृश्य देखने को मिल सकते हैं, जैसा पिछले वर्ष श्रीलंका में भी देखने को मिला है.

हमारे देश को इन सभी परिस्थितियों पर सूक्ष्म दृष्टि से नजर रखनी होगी तथा कोई भी कूटनीतिक कदम उठाने से पहले सभी पक्षों पर विचार और सभी स्त्तर के अपेक्षित लोगों से परामर्श आवश्यक है. आशा करता हूं कि जल्द ही बांग्लादेश में फिर से लोकतंत्र की प्रतिष्ठा होगी और वहां के लोग जो बहुत ही सीमित संसाधनों में एक दूसरे के साथ पारस्परिक सहयोग से अपना जीवन जीते आए हैं, जिसे हम दादा-भाई संपर्क के नाम से जानते हैं के साथ हंसी-खुशी अपना जीवन जीते हुए विकास के पथ पर पुनःअग्रसर देखे जाएंगे.

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